चलो फ़िर से हौले से मुस्कुराते हैं,
बिना माचिस के ही लोगों को जलाते हैं।
भरोसा क्या करना गैरों पर,
जब गिरना और चलना है अपने ही पैरों पर।
ये सर्द शामें भी किस कदर ज़ालिम है,
बहुत सर्द होती है, मगर इनमें दिल सुलगता है।
तोड़ा कुछ इस अदा से तालुक़ उस ने ग़ालिब,
कि सारी उम्र हम अपना क़सूर ढूँढ़ते रहे।
उसकी आंखे इतनी गहरी थी की,
तैरना तो आता था मगर डूब जाना अच्छा लगा।
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