रोज़ मिट्टी में कहां जान पड़ा करती है,
इश्क सदियों में कोई ताजमहल देता है।
चिराग कैसे अपनी मजबूरियाँ बयाँ करे,
हवा जरूरी भी और डर भी उसी से है।
बिछड़ कर फिर मिलेंगे यकीन कितना है,
बेशक खवाब ही है मगर हसीन कितना है।
तुम्हें चलना ही कितना है सनम बस मेरी..
धड़कनों से गुजरकर इस दिल में ही उतरना है।
क्या बताऊँ उनकी बातें कितनी मीठी हैं,
सामने बैठ के फीकी चाय पीते रहते हैं।
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