ऐ मौत तेरे लिए क्या बचेगा,
हमें तो जिंदगी ही दफना रही है।
सहारा तो बहुतों का मिला,
पर बेसहारा भी अपनों ने ही किया।
फले फूले कैसे ये गूंगी मोहब्बत,
न वो बोलते हैं न हम बोलते हैं।
साथ बैठने की औकात नहीं थी उसकी,
मैंने सर पर बिठा रखा था जिसे।
नाराज हमेशा खुशियाँ ही होती है,
ग़मों के कभी इतने नखरे नहीं होते।
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