रास आने लगती है तन्हाई भी,
बस एक-दो रोज़ बुरा लगता है।
तुम्हें ये कौन समझाये, तुम्हें ये कौन बतलाये,
बहुत खामोश रहने से, ताल्लुक टूट जाते है।
आईना कब किसको, सच बता पाया है,
जब देखा दायाँ तो, बायाँ ही नजर आया है।
ज़ुल्म के सारे हुनर हम पर यूँ आज़माए गये,
ज़ुल्म भी सहा हमने और ज़ालिम भी कहलाये गये।
नाराज़ ना होना कभी बस यही एक गुज़ारिश है,
महकी हुई इन साँसों की साँसों से सिफ़ारिश है।
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