चलो फ़िर से हौले से मुस्कुराते हैं,
बिना माचिस के ही लोगों को जलाते हैं।
भरोसा क्या करना गैरों पर,
जब गिरना और चलना है अपने ही पैरों पर।
ये सर्द शामें भी किस कदर ज़ालिम है,
बहुत सर्द होती है, मगर इनमें दिल सुलगता है।
तोड़ा कुछ इस अदा से तालुक़ उस ने ग़ालिब,
कि सारी उम्र हम अपना क़सूर ढूँढ़ते रहे।
उसकी आंखे इतनी गहरी थी की,
तैरना तो आता था मगर डूब जाना अच्छा लगा।
खोजती है निग़ाहें उस चेहरे को,
याद में जिसकी सुबह हो जाती है।
चलो हो गयी रात अब फिर,
दिल के किसी कोने में उसकी याद उमड़ आएगी।
खेलना अच्छा नहीं किसी के नाज़ुक दिल से,
दर्द जान जाओगे जब कोई खेलेगा तुम्हारे दिल से।
ऐ चाँद चला जा क्यूँ आया है तू मेरी चौखट पर,
छोड़ गया वो शख्स जिस के धोखे मे तुझे देखते थे।
ये नज़र चुराने की आदत आज भी नहीं बदली उनकी,
कभी मेरे लिए ज़माने से और अब ज़माने के लिए हमसे।
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